भारत के सबसे प्रतिष्ठित आध्यात्मिक केंद्रों में से एक और भगवान कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा अपने धार्मिक कलेवर और सदियों पुरानी परंपराओं के लिए जाना जाता है। उत्सव और आस्था से भरे इस माहौल के बीच अब से करीब 63 साल पहले मथुरा में एक ऐसा रेल हादसा हुआ, जिसके यादें आज भी उन लोगों के जेहन में ताजा है, जिन्होंने इसे देखा था। 1962 में गोवर्धन मुड़िया पूर्णिमा मेले के दौरान हुई इस विनाशकारी घटना ने एक पवित्र उत्सव को खूनखराबे और राष्ट्रीय शोक में बदल दिया।
वह तारीख जिसने सब कुछ बदल दिया: 17 जुलाई, 1962
मंगलवार, 17 जुलाई, 1962 की सुबह, हजारों भक्त गुरु पूर्णिमा, एक बड़े धार्मिक आयोजन के लिए मथुरा में इकट्ठा हुए थे। आने जाने के सीमित साधन और बहुत ज्यादा भीड़ के कारण, कई तीर्थयात्रियों को रेलगाड़ियों की छतों पर चढ़कर यात्रा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो उस वक्त एक आम लेकिन खतरनाक तरीका था।
इस त्रासदी के केंद्र में कैंची पुल था, जो यमुना नदी पर एक तरह का डुअल पर्पस रेलवे पुल था, यानी इसे रेलगाड़ियां और गाड़ियां दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन जब भी कोई रेलगाड़ी आती थी, तो इसे सड़क यातायात के लिए बंद कर दिया जाता था।
उस सुबह, उत्तर पूर्वी रेलवे लाइन, जो उत्तर बंगाल, न्यू जलपाईगुड़ी और असम जैसे इलाकों को जोड़ती है, उस पर एक पैसेंजर ट्रेन लगभग 4 बजे पुल पार कर रही थी और यही वो भयावह पल था, जिसे आज भी लोग नहीं भूल पाते।
ट्रेन के ऊपर बैठे सैकड़ों तीर्थयात्री या तो पुल की स्टील बीम से टकरा गए या उछलकर दूर जा गिरे, जिससे उन्हें गंभीर चोटें आईं, जिसमें किसी की शरीर के अंग कट गए, तो किसी सिर ही धड़ से अलग हो गया।
लोगों में दहशत और चीख-पुकार मच गई और लोग डर के मारे भागने लगे। कुछ ही पल में पूरी तस्वीर साफ हो गई। उस दौरान कोई कुछ भी नहीं कर पाया। तेज रफ्तार से क्रॉसिंग के बाद ट्रेन खून से लाल हो गई। हर जगह खून बिखरा हुआ था, ट्रेन की छत, खिड़कियां और दरवाजे सब खून में भीगे हुए थे।
हादसे की दर्दनाक कहानी देखने वालों की जुबानी
हादसे की बाद की तस्वीर डरावनी थी। ट्रेन हादसे के गवाहों ने पीड़ितों को, सिर कटने के बाद भी, कुछ पलों के लिए बेतरतीब ढंग से भटकते हुए देखा, फिर वे बेजान होकर जमीन पर गिर पड़े। सुबह के सन्नाटे में चीख-पुकार और अराजकता से फैल गई।
उन्होंने बताया कि ट्रेन खून से लाल हो गई थी, उसकी छत, खिड़कियां और दरवाजे नरसंहार के बाद खून लथपथ हुए थे। यमुना में दर्द और भय की चीखें गूंज रही थीं। जिंदा यात्री घायलों की मदद करने या लापता प्रियजनों को ढूंढने की कोशिश कर रहे थे।
लंदन में रहने वाले सुशील शर्मा उस समय छोटे थे। उन्हें अच्छी तरह याद है कि शोरगुल सुनकर वे यमुना किनारे भागे थे। उन्होंने कहा, "मैंने हर जगह लाशें देखीं, कई तो पहचान में भी नहीं आ रही थीं। ट्रेन, पुल, नदी के किनारे खून से लथपथ थे... यह बहुत ही डरावना था।"
वरिष्ठ पत्रकार मोहन स्वरूप भाटिया ने घटना के बाद की घटनाओं को दर्ज किया और बताया कि रेलवे कर्मचारियों की तरफ से छत पर यात्रा न करने की बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद यात्रियों ने इस सलाह को नजरअंदाज किया। उन्होंने बताया, "हजारों लोग गोवर्धन परिक्रमा करने आए थे, लेकिन पर्याप्त डिब्बे नहीं थे।"
ऐसा माना जाता है कि सहयोग की कमी से हताश होकर, ट्रेन ड्राइवर ने पुल पर तेजी से गाड़ी चला दी, क्योंकि पुल पर इतनी भीड़ को संभालने के लिए सुरक्षा प्रावधान नहीं थे।
कभी बसों, कारों, ट्रकों और तांगों के लिए सड़क की तरह इस्तेमाल होने वाला यह पुल एक अकल्पनीय त्रासदी का दृश्य बन गया। इस दुर्घटना ने एक अमिट छाप छोड़ी, जो मथुरा और भारतीय रेलवे दोनों के इतिहास में एक दुखद अध्याय बन गया।
आज भी, 1962 की मुड़िया पूर्णिमा त्रासदी का जिक्र मात्र से ही स्थानीय लोगों और खासकर उस दर्दनाक घटना से गुजरे बुजुर्गों की रूह कांप जाती है। एक ऐसी भूमि में जहां आत्मा और भक्ति का मिलन होता है, यह इस बात की याद दिलाता है कि जब सुरक्षा की अनदेखी की जाती है, तो उत्सव कितनी आसानी से तबाही में बदल सकता है।
खजाने की तलाश नहीं थी, लेकिन मिल गया करोड़ों का सोना! इतिहासकार भी रह गए हैरान
from HindiMoneycontrol Top Headlines https://ift.tt/UbxeBkD
via
No comments:
Post a Comment