Wednesday, April 5, 2023

डिजिटल निगरानीः सरकार करे तो हां और प्राइवेट संस्थाएं करें तो ना, आखिर ऐसा क्यों?

`` वे जानते हैं मेरी रसोई में क्या बना है आज / मैनें किस बैंक में खोला है खाता /... वे सुन लेते हैं मेरी, प्रेमी से हुई बातचीत में, आयी बेचारे देश की हल्की झलक / फोन रखते ही वे भेजते हैं मुझे बहुत से नए पुरुषों की छवि किः आप इनसे मित्रता कर सकते हैं। `` ऊपर की ये पंक्तियां `डिजिटल युग` नाम से लिखी और फेसबुक पर शेयर की गई कविता की हैं। इन पंक्तियों को रचा है महानगरी कोलकाता के जीवन-परिवेश में रची-बसी कवयित्री ज्योति शोभा ने। कविता में जो चिन्ता दर्ज की गई है क्या कभी वैसी चिन्ता ने आपको भी सताया है ? ऑनलाइन जानकारी के दुरूपयोग की चिंता क्या आपको भी लगता है कि आपके निजी जीवन पर किसी की नजर है? कोई है जो कपड़ों से लेकर कविताओं तक और राजनेताओं से लेकर प्रेमियों तक की आपकी पसंद-नापसंद को ना सिर्फ जानता है बल्कि उसे प्रभावित करने की भी कोशिश कर रहा है ? थोड़े में यह कि क्या आपको अपनी निजी जिन्दगी की हो रही डिजिटल निगरानी की जानकारी है और क्या इस निगरानी को लेकर आप अक्सर असहज महसूस करते हैं? अगर ऐसा है तो समझिए आप अकेले और अनूठे नहीं हैं, ना ही आप किसी मतिभ्रम के शिकार हैं। देश के शहरी इलाकों में हर दो में से एक व्यक्ति इस बात से पूरी तरह सहमत है कि ऑनलाइन सर्च के आधार पर उसे विज्ञापन दिखाये जाते हैं। लगभग चालीस प्रतिशत लोग बड़ी चिन्ता में हैं कि ऑनलाइन जानकारी देने पर उसका दुरूपयोग किया जा सकता है। और, इस मामले में लोगों का सबसे ज्यादा अविश्वास प्राइवेट संस्थाओं पर है। महानगरों, राज्य की राजधानियों और बड़े शहरों यानी व्यावसायिक लेन-देन की सघन जगहों पर ही नहीं बल्कि छोटे नगरों में भी हर तीन में से दो व्यक्ति इस बात को लेकर चिन्तित है कि जिन प्राइवेट संस्थाओं ने उनका पर्सनल डेटा (जैसे आंख की पुतली और अंगुलियों की छाप, नाम, पता, ईमेल एड्रेस, उम्र, लिंग आदि) ले रखा है, उनका दुरूपयोग किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह कि नागरिकों की एक बड़ी तादाद पर्सनल डेटा के संग्रह और लेने-देन की सरकारी युक्तियों (जैसे आधार-कार्ड और पैन कार्ड) के इस्तेमाल को लेकर पसोपेश में है। शहरी भारत में हर चार में से तीन व्यक्ति को चिन्ता लगी है कि आधार-कार्ड या पैन नंबर ऑनलाइन लीक हो सकता है। अगर इस नाते, प्रतिशत पैमाने पर देखें तो शहरी भारत में कुल चौवालिस प्रतिशत लोग बड़े चिन्तित हैं कि कोई अनजाना आदमी या कंपनी उनके बैंक खाते पर नजर रखे हुए है (शायद इसलिए कि बैंक सरकारी हों या प्राइवेट, उनमें खाता खोलने और चलाये रखने के लिए अब आधार-कार्ड और पैन-कार्ड देना ही होता है)। डिजिटल निगरानी के बारे एक अनूठी रिपोर्ट ऊपर के ये आंकड़े विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के लोकनीति संभाग और लोक-कल्याण के प्रश्नों के कानूनी समाधान तथा जन-जागरण को समर्पित नागरिक संगठन कॉमनकॉज के एक अध्ययन से लिये गये हैं। सीएसडीएस और कॉमनकॉज ने बीते हफ्ते निजता (प्राइवेसी) के मौलिक अधिकार और निगरानी के सवालों पर सर्वेक्षण आधारित एक रिपोर्ट जारी किया। स्टेटस् ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट (SPIR) की यह चौथी कड़ी है। इसमें मुख्य रूप से यह देखने की कोशिश की गई है कि इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल तथा निजी क्षेत्र में डिजिटल माध्यमों की भरमार के बीच देश के शहरी इलाकों में विभिन्न तबकों के लोग निगरानी और निजता के मसले पर क्या सोचते हैं। आप कह सकते हैं कि डिजिटल इंडिया के भागीदार नागरिकों के मन में डिजिटल निगरानी को लेकर बैठी आशंका, डर, रूझान, सामाजिक बरताव और इससे जुड़े अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की जानकारी के बारे में SPIR(2023) अपने किस्म का पहला दस्तावेज है। डिजिटल निगरानीः सरकारी-तंत्र बनाम प्राइवेट संस्थाएं लेख के ऊपरी हिस्से में डिजिटल निगरानी के बारे में SPIR (2023) के जो निष्कर्ष दर्ज किये गये हैं, उन पर आगे सोच-विचार करने से पहले आइए सीन बदलते हैं और आपको लिए चलते हैं देश की सबसे ज्यादा आबादी और सबसे ज्यादा गरीबी वाले राज्यों में शुमार बिहार में जहां `पूर्ण शराबबंदी` का नियम लागू है। कानूनन चूंकि शराब के बनाने, बेचने और पीने पर प्रतिबंध है सो सरकार की ओर से नगरों में जगह-जगह चेतावनी के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाये गये हैं। इन होर्डिंग्स पर शराब पीने, बनाने और बेचने की मनाही के साथ एक चेतावनी लिखी रहती है किः जल, थल और आकाश कहीं भी रहो, हमसे बच पाना नामुमकिन है। साल भर पहले खबर आयी थी कि शराब-तस्करों पर नकेल कसने के लिए सूबे में चॉपर और ड्रोन का इस्तेमाल किया जा रहा है और यह भी कि सूबे का पंचायती-राज विभाग हर पंचायत में 100 सीसीटीवी कैमरे लगाने जा रहा है ताकि कोई शराबबंदी का कैसा भी उल्लंघन करे तो उसकी हरकत कैमरों में कैद हो जाये. यहां एक सवाल बनता हैः डिजिटल निगरानी के अपने महाकाय तंत्र सहारे जब सरकारें दावा कर रही हैं कि धरती, आकाश और पाताल हर जगह, हर गतिविधि पर उनकी नजर है तो क्या इसे निजता के मौलिक अधिकार के नुकसान के रूप में देखा जाये? क्या देश के नागरिकों में निगरानी के ऐसे विशाल-तंत्र के दुरूपयोग को लेकर वैसी ही आशंका है जैसा कि प्राइवेट कंपनियों के ऊपर ? सरकारी डिजिटल निगरानी को चार गुना ज्यादा समर्थन SPIR (2023) के निष्कर्ष इस मामले में चौंकाऊ हैं। रिपोर्ट में सर्वेक्षण के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है कि नागरिकों की एक बड़ी तादाद सरकारी एजेंसियों के हाथों होने वाली डिजिटल निगरानी के पक्ष में है। रिपोर्ट के मुताबिक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी रूप जैसे विरोध-प्रदर्शन और असहमति के इजहार पर रोक लगाने के लिए सरकार डिजिटल निगरानी के उपकरणों का उपयोग करे तो ज्यादातर लोग इसे सही मानते हैं। यही नहीं, पेगासस जैसे अवैध सॉफ्टवेयर के जरिए अगर राजनेताओं और पत्रकारों की बातचीत में सरकारी एजेंसियां सेंधमारी करें तो भी लोग इसे सही मानते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक प्राइवेट संस्थाओं के जरिए होने वाली डिजिटल निगरानी की तुलना में सरकार और पुलिस के जरिए होने वाली डिजिटल निगरानी को लोगों में चार गुना ज्यादा समर्थन हासिल है। रिपोर्ट के कुछ आंकड़े नागरिकों के इस रूझान की बेहतर तस्वीर पेश करते है। SPIR (2023) के मुताबिक सर्वेक्षण में 21 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि चुनी हुई सरकारें नागरिकों की हमेशा जासूसी करवाती हैं जबकि 27 प्रतिशत का कहना था कि ऐसा कभी-कभी ही होता है। इतने ही (27 प्रतिशत) उत्तरदाताओं का कहना था कि वे निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि सरकारें अपने नागरिकों की निगरानी कराती हैं और 11 प्रतिशत उत्तरदाता तो मानते ही नहीं कि सरकारें नागरिकों की निगरानी भी करवाती हैं। जाहिर है, लोगों की ज्यादातर तादाद सरकारी निगरानी और निजता के अधिकार के बीच आपसी संबंध जोड़ पाने में ( या यह देख पाने में कि सरकारी निगरानी जितनी बढ़ेगी, लोगों की निजता का पता देने वाले डिजिटल आंकड़ों के दरूपयोग की आशंका उतनी ही बढ़ सकती है) सक्षम नहीं है। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से अधिक लोगों का मानना था कि विचाराधीन बंदियों और संदिग्ध लोगों के बायोमीट्रिक डेटा जमा करना सही है। हर दो में से एक उत्तरदाता(यानी 50 प्रतिशत) का मानना था कि सरकार या सैन्य बल निगरानी के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो ऐसा जायज है और लगभग इतने ही उत्तरदाताओं ने कहा कि सरकार या पुलिस-बल का फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक का इस्तेमाल करना सही है। और, गौर करें कि ऐसी स्थिति तब है जब सर्वेक्षण में शामिल महज 16 प्रतिशत लोग मानते हैं कि निगरानी की तकनीकों जैसे सीसीटीवी, ड्रोन और फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक का इस्तेमाल करने में पुलिस-बल पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित है। डिजिटल निगरानीः अमीर और गरीब का भेद यहां भी साढ़े पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को भारतीय नागरिकों का मौलिक अधिकार करार दिया था, इसे संविधान के अनुच्छेद 21 में दर्ज जीवन जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अनिवार्य हिस्सा माना था। याद करें कि निजता के अधिकार मामले में सुनवाई के दौरान सरकारी पक्ष से क्या तर्क दिये गये थे। उस वक्त एटार्नी जेनरल के.के. वेणुगोपाल का अदालत के सामने तर्क था कि निजता तो एक इलीट धारणा है यानी खूब पढ़े-लिखे, खाये-अघाये लोगों की जरूरत की चीज और निजता का विचार देश अधिसंख्यक लोगों की जरूरत से मेल नहीं खाता। नौ जजों की बेंच ने तब इस तर्क का प्रतिवाद किया और कहाः ये सोचना कि जरूरतमंद लोगों को बस आर्थिक तरक्की चाहिए, नागरिक और राजनीतिक अधिकार नहीं, अनुचित है। निजता के अधिकार और नागरिकों की सरकारी डिजिटल निगरानी के बीच के आड़े-तिरछे रिश्तों की पहचान करती SPIR (2023) रिपोर्ट में भी हम एटर्नी जेनरल के तर्क (निजता-एक एलीट अवधारणा) और इस तर्क पर कोर्ट के रूख में मौजूद विरोध की झलक देख सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक बेशक, ज्यादातर लोग कहते हैं कि डिजिटल निगरानी सरकार के हाथों हो तो एक हदतक ठीक है लेकिन इसमें भी वर्गगत भेद है। SPIR (2023) में दर्ज है कि समाज का किसान और गरीब तबका ड्रोन से होनेवाली निगरानी के पक्ष में नहीं है। सर्वेक्षण में शामिल आदिवासी और मुस्लिम उत्तरदाता विचाराधीन बंदियों और संदिग्ध लोगों के बायोमीट्रिक डेटा जमा करने के विरोध में थे। जहां तक सरकारी सीसीटीवी लगाने की बात है, रिपोर्ट के मुताबिक अमीर लोगों के रिहाइशी इलाकों की तुलना में झुग्गी-बस्तियों और गरीबों के इलाके में इसकी संभावना तीन गुना ज्यादा है। इसका एक मतलब हुआ कि गरीब जनता के बीच घर या बस्ती अंदर, या काम करने की जगह- कहीं भी सीसीटीवी लगाने के सरकारी प्रयास का समर्थन अमीरों की तुलना में कम है। रिपोर्ट से निकलता लोकतंत्र का अहम सवाल निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक महत्वपूर्ण बात नोट की थी किः किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी जुटाना उसपर काबू पाने की प्रक्रिया का पहला कदम है। कोर्ट की इस पंक्ति की रोशनी में जरा अपने वक्त पर गौर करें जब स्मार्टफोन में एप्प डाऊनलोड करना हो तो एप्प मुहैया कराने वाला हमसे फोन के कांन्टैक्ट-लिस्ट, गैलरी और स्टोरेज में जाने की इजाजत मांगता है और बगैर इस इजाजत के एप्प डाऊनलोड ही नहीं होता। ऑनलाइन बरताव में यह भी गारंटी नहीं कि कोई थर्ट पार्टी कहीं घात लगाकर ना बैठी हो और वह एप्प डाऊनलोड करने पर हमारी दी गई जानकारी में सेंधमारी ना कर ले। क्या अपनी निजी जानकारी देने के लिए बाध्य होना अपने ऊपर किसी और को काबू करने का न्यौता देने जैसा नहीं है ? और क्या होगा लोकतंत्र का जब ऐसा सरकार करने लगें ? सरकारें तो लोक-कल्याण की नीतियां बनाते वक्त यह बात मानती ही नहीं कि जरूरतमंदों की भी कोई निजता होती है और इस निजता में सेंधमारी ठीक नहीं है। मिसाल के लिए आधार-कार्ड का ही मसला लें। अब लोक-कल्याण की ज्यादातर सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए आधार-कार्ड यानी विशिष्ट पहचान संख्या देना जरूरी है। आप मनरेगा के मजदूर हैं या फिर सीमांत किसान, आपकी हकदारी की रकम यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर आधार-संख्या दिये बगैर मुमकिन ही नहीं। आधार-संख्या दिये बगैर ना तो रसोई गैस मिलती है ना ही सरकारी राशन दुकानों पर मिलने वाला अनुदानित अन्न। सवाल उठता है, अगर देश की अधिसंख्य आबादी का पर्सनल डेटा अब सरकार या फिर सरकार की मातहती में काम करने वाली किसी संस्था के पास है तो क्या इस डेटा के राजनीतिक दुरूपयोग की आशंका नहीं ? क्या होगा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का अगर किसी सरकारी नीति के विरोध के लिए नागरिकों का कोई समूह योजना बना रहा हो और उसकी एक-एक गतिविधि डिजिटल निगरानी के महाबली साधनों के सहारे कोई सरकारी एजेंसी अपने संज्ञान में ले रही हो? क्या इस बात की कोई गारंटी है कि इस अग्रिम जानकारी के सहारे विरोध-प्रदर्शन की वास्तविक या आभासी जगह (फेसबुक, ट्वीट्र आदि) पर नागरिकों की पहुंच को सरकार बाधित नहीं करेगी ? हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जब राजनीतिक दल चुनावी कामयाबी की मंशा से लोगों के पर्सनल डेटा का इस्तेमाल कर रहे हैं और यह भी सच है कि चुनावी कामयाबी के लिए लोगों को किन्हीं मुद्दों पर गोलबंद करना जरूरी है। यह गोलबंदी कई बार जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के बीच वैमनस्य पैदा करके की जाती है। राजनीतिक दलों पर आरोप लगते हैं कि वे चुनावी कामयाबी की मंशा से सांप्रदायिक, भाषाई, क्षेत्रीय या जातिगत पहचान को आधार बनाकर लोगों के बीच वैमनस्य फैला रहे हैं। इस काम में लोगों का पर्सनल डेटा राजनीतिक दलों के लिए बड़े काम का साबित हो सकता है। ऐसे दौर में लोगों के बीच क्षेत्र, धर्म, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव ना करने वाली एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में हम खुद को क्या यह गारंटी दे पाने में सक्षम हैं कि नागरिकों के पर्सनल डेटा का राजनीतिक दुरूपयोग नहीं होगा ? सुप्रीम कोर्ट की तरह अगर आप भी मानते हैं कि किसी बारे में जानकारी जुटाना उसपर काबू पाने की प्रक्रिया का पहला कदम है तो फिर SPIR(2023) के तथ्य आपको एक बेहद गंभीर स्थिति पर सोचने को मजबूर कर देंगे। स्थिति यह किः आपकी निजी जानकारियों पर अब आपका वश नहीं और ज्यादातर लोग इस स्थिति से आगाह भी नहीं कि उनकी निजी जानकारियां हासिल करके उनकी राजनीतिक पसंद-नापसंद को गढ़ा जा सकता है।

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