Saturday, August 6, 2022

Housing: इंडियन रियल एस्टेट मार्केट क्यों प्रॉब्लम में फंस गया?

इंडियन हाउसिंग मार्केट (Indian Housing Market) सिर्फ कुछ दशक पुराना है। पहले कुछ चुनिंदा डेवलपर्स या डेवलपमेंट अथॉरिटीज की तरफ से रेजिडेंशियल यूनिट्स (Residential Units) के लिए प्लॉट बेचे जाते थे। फिर, 2000 के दशक में कुछ गुमनाम कंपनियों की तरफ से अंधाधुंध कंस्ट्रक्शन शुरू हो गई। 1980 के दशक के मध्य और 1990 के दशक का दौर याद करें तो शहरों में सिर्फ जी + 3 या 4 (ग्राउंड फ्लोर प्लस थ्री/चार फ्लोर्स) घरों की बिक्री होती थी, जिसमें लिफ्टी नहीं होती थी। इसकी बिक्री दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी (DDA) या गाजियाबाद डेवलपमेंट अथॉरिटी (GDA) जैसी डेवलपमेंट अथॉरिटीजी की तरफ से की जाती थी। हायर-पर्चेज स्कीम के तहत इनकी कीमतें ज्यादा नहीं होती थीं। ग्राहक को पैसे चुकाने के लिए 10 से 15 साल मिलते थे। रिटायर्ड लोग रिटायरमेंट बेनिफिट का पैसा डाउन पेमेंट में चुकाते थे और पेंशन के पैसे से मासिक किस्त भरते थे। बैंक की तरफ से लोन का चलन शुरू नहीं हुआ था। कुछ बैंक लोन देते थे, लेकिन उनका इंटरेस्ट रेट 16.5 फीसदी होता था। यह भी पढ़ें : Atul Kulkarni: ''एक्टर और प्रोड्यूसर Aamir Khan के लिए लिखी गई 'लाल सिंह चड्ढा" पहला बड़ा बदलाव तब आया, जब डेवलपमेंट अथॉरिटीज ने कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसायटीज (CGHS) बनाने के लिए रजिस्टर्ड बायर्स के ग्रुप को जमीन अलॉट करना शुरू किया। 1990 के दशक के मध्य तक इसमें भी फ्रॉड शुरू हो गया। अलॉटमेंट में अनियमितता की वजह से द्वारका (दिल्ली) में 3,500 से ज्यादा घर अधूरे पड़े हैं। यह इंडिया के हाउसिंग मार्केट में स्ट्रक्चर्ड फ्रॉड का पहला दौर था। हाउसिंग एंड हैबिटाट पॉलिसी: इंडियन हाउसिंग इंडस्ट्री में साल 1998 बहुत अहम था। उस साल पहली हाउसिंग एंड हैबिटाट पॉलिसी बनाई गई थी। इसमें मिडिल क्लास की घरों की जरूरतें पूरी करने के लिए प्राइवेट सेक्टर की हिस्सेदारी बढ़ाने पर जोर दिया गया था। 1991 में इकोनॉमी को ओपन करने और बाद के सालों में लोगों की सैलरी बढ़ने से मिडिल क्लास लोगों की आकांक्षाएं बढ़ीं। ये रोजगार की तलाश में नए शहर जाने को तैयार थे। ऐसे लोगों के सपनों को पूरा करने के लिए कमर्शियल बैंकों की हाउसिंग फाइनेंस इकाइयों ने 8.5 फीसदी इंटरेस्ट रेट से लोन बांटना शुरू किया। लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन (LIC), पंजाब नेशनल बैंक (PNB) और सिंडिकेट बैंक ने अपनी हाउसिंग फाइनेंस इकाइयां बनाईं। हाउसिंग सेक्टर के लिए रिफाइनेंसिंग एजेंसी के रूप में 1988 में नेशनल हाउसिंग बैंक (NHB) की स्थापना हुई। इसे 2019 तक हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों के लिए नियम बनाने का अधिकार हासिल था। इसका मकसद सस्ती दरों पर फाइनेंस और जमीन उपलब्ध कराना था। इसका मकसद यह था कि कामकाजी आबादी को रहने के लिए अपना घर मिल जाए। कमर्शियल रियल एस्टेट में काफी विदेशी पैसा आ रहा था, इसके बावजूद हाउसिंग में विदेशी निवेश की इजाजत नहीं दी गई। सस्ता होम लोन: 2002-2004 के दौरान अचानक रियल एस्टेट की तस्वीर बदल गई। होम लोन का इंटरेस्ट बहुत घट गया। प्राइवेट डेवलपर्स ने लाइफस्टाइल फीचर्स के साथ मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग्स बनानी शुरू कर दी। प्रोफेशनल डेवलपर्स की पहली पीढी ने आम लोगों के लिए घर बनाए। सरकार ने दिल्ली और मुंबई में 1000 वर्ग फीट और छोटो शहरों में 1500 वर्ग फीट के घर बनाने वाले डेवलपर्स को सेक्शन 80IB(10) के तहत टैक्स छूट दी। यह टैक्स ब्रेक 1998 से 2005 तक जारी रहा, जिसे बढ़ाकर 2007 तक कर दिया गया। इस टैक्स छूट का लाभ उठाने वाले प्रोजेक्ट्स 2012 तक पूरे होने जरूरी थे। डेवलपर्स नए थे, उन्होंने लोन की आसान उपलब्धता के साथ आम लोगों के लिए घर बनाने शुरू किए। आजादी के बाद इंडिया में पहली बार ऐसा हो रहा था। 40 से ज्यादा उम्र के प्रोफेशनल्स ने अपनी कमाई से घर खरीदने शुरू किए। घर बनाने में 2-4 साल का समय लगता था। ग्राहक वर्ग फीट के आधार पर घरों की कीमत चुकाने लगे। जल्द डिमांड सप्लाई के मुकाबले बढ़ गई। कई ग्राहकों ने लॉन्च प्राइस में घर खरीदकर बाद में महंगे दाम में बेचकर खूब पैसे बनाए। जल्द बड़ी कमाई के इस मौके की वजह से इनवेस्टर्स का नया वर्ग तैयार हो गया। बाजार हर्षद मेहता के स्टॉक मार्केट स्कैम से उबरने की कोशिश कर रहा था। सेबी ग्राहकों के हित में नियम और कानून बना रहा था। नेशनल हाउसिंग बैंक पर बतौर रेगुलेटर 34 हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों के लिए नियम बनाने की जिम्मेदारी थी। 10 फीसदी इनवेस्टर: 2004 से 2006 के बीच इनवेस्टर्स एक नए फॉर्मूला लेकर आए। स्टॉक मार्केट या किसी प्रॉपर्टी की बिक्री से हासिल पैसे का इस्तेमाल टोकन मनी या डाउन पेमेंट के लिए किया जाने लगा। कुछ मामलों में उधार के पैसे से घर कि किस्त चुकाई गई। 2006 के मध्य तक सटोरियों के मार्केट में आने से कैश फ्लो बढ़ गया। इससे वे लोग मार्केट से बाहर होने लगे, जो खुद के रहने के लिए घर खरीदना चाहते थे। सटोरियों ने खूब पैसे कमाएं। इनकी पूरी पीढ़ी प्रॉपर्टी मार्केट में एंट्री और एग्जिट के टाइमिंग के गैप का फायदा उठा मालामाल हो गई। इन्हें सलाह देने के लिए बड़ी संख्या में ब्रोकर्स भी आए गए, जो डेवलपर्स के लिए 4-6 फीसदी कमीशन पर काम करते थे। इनमें से कई ने तो कमीशन के पैसे का कुछ हिस्सा ग्राहकों को देकर उन्हें प्रॉपर्टी खरीदने के लिए लुभाने की कोशिश की। यह फटाफट कमाई के लिए हाउसिंग में इनवेस्ट करने वालों, ब्रोकर्स और डेवलपर्स के लिए गोल्डन टाइम था। इसमें नुकसा उन लोगों को हुआ जो घर के असर खरीदार थे। तब जो कुछ हो रहा था उसके नतीजें बाद में रियल एस्टेट मार्केट की दुखद कहानियों के रूप में सामने आनी वाली थी।

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